चैत्र नवरात्र: महर्षि कात्‍यायन के आश्रम में प्रकट होकर उनकी कन्या माने जाने वाली, मां कात्यायनी नाम से प्रसिद्ध हैं- Team DA Exclusive

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म.प्र.(भोपाल): अपने आसपास की प्रकृति का अवलोकन करने पर दिखाई पड़ता है कि समस्त जड़-चेतन, स्‍थावर-जड्ग्म और चर-अचर में निरन्‍तर परिवर्तन की क्रिया चल रही है। इसे भौतिकवादी, अनीश्‍वरवादी प्रकृति का स्वभाव मानते है तो आस्‍तीक इसे ईश्वर के क्रियाकलपों और उनकी लीला कहते हैं। यह तो निर्विवाद सिद्ध है कि पृथ्वी पर जब बीज गिरता है वह मिट्टी में मिलकर उसकी ऊष्मा से अंकुरित होता है, सूर्य से प्रकाश पाकर हरीतिमा में परिवर्तित होता है, कोपलें निकलती हैं। भूमि से जड़ों द्वारा पोषक से तत्व ग्रहण करता है, सूर्य प्रकाश किरणों के चुम्‍बन से आह्लादित  होकर अपने जनक के आकार के समान ही पत्तों के आकार-प्रकार कटाव और गन्‍थ आदि गुणों से युक्त होता है। अस्तित्व की निरंतरता के लिए फल-फूल देता है जिससे बीज बनते हैं, जो इस प्रक्रिया को, प्रकृति की स्वभावगत उर्वरता को बनाये रखने में सहायक होते हैं। सृष्टि का क्रम चलता रहता है। इसे जो प्रकृति का स्वभाव मानते हैं उसे मानने और जानने में एनर्जी की आवश्यकता होती है जो कि शक्ति होती है।

ऋग्वेद में वागम्‍मृणी सूक्त में ऋषि शक्ति के क्रियाकल्पों का स्मरण करते हुए वन्‍दना के स्वरों में कहता है-

अहं राष्ट्रीय संगमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा य‍ज्ञियानाम्।

तां मा देवा व्‍यदधु: पुरूत्रा भूरिस्‍थात्रीं भूर्यावेशयन्तिम्।।

मैं ही इस विश्व की नियामिका शक्ति हूँ, अष्टमूर्ति की समन्वय करने वाली मैं ही हूँ। सृष्टियज्ञ के प्रवर्तन में प्रथम मैं हूं। मैं सभी में स्थित हूँ। मैं सभी में व्याप्त हूँ। प्राणिमात्र में द्योतनशील प्रकाश-चेष्‍टा स्वरूप मैं ही हूँ।

छठवीं भगवती दुर्गा कात्यायनी

देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिए देवी, महर्षि कात्यायन के आश्रम पर प्रकट हुईं और महर्षि ने उन्हें अपनी कन्या माना, इसलिए कात्यायनी नाम से ही प्रसिद्ध है।

स्‍मरण मंत्र

चन्द्रहासोज्ज्वलकरा शार्दूलवरवाहना।

कात्यायनी शुभं दद्याद्देवी दानवघातिनी॥

मां दुर्गा के छठे स्वरूप को कात्यायनी कहते हैं। महर्षि कात्‍ययान के यहां पुत्रीरूप में उत्पन्न होने के कारण इनका कात्यानी नाम प्रसिद्ध हुआ। ऐसे भी कथा मिलती है कि उन्होंने अश्वनी कृष्ण चतुर्दशी को महर्षि कात्यायन के यहां जन्म लेकर अश्विनी शुक्‍ल सप्तमी, अष्टमी और नवमी को उनके द्वारा पूजा ग्रहण की थी। तदनन्‍तर अश्विनी शुक्‍ल दशमी को कात्यायीन देवी ने महिषासुर का वध किया। यही व्रजमण्‍डल की अधिष्‍ठात्री देवी के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इनका स्वरूप अत्यन्‍त भव्य है। इनकी चार भुजाऐं हैं तथा इनका वाहन सिंह है। इनकी दाहिनी ओर की दो भुजाओं में अभय तथा वरमुद्रा और बायीं ओर की दो भुजाओं में खड्ग और कमल है। इनके सिर पर सुन्‍दर स्वर्णमुकुट सुशोभित है। इनकी उपासना नवरात्र के छठवें दिन की जाती है। इनकी उपासना से साधक को अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष सभी सहज ही सुलभ हो जाते हैं।

माँ जगदंबा के चरण कमलों में समर्पित लेख का छठवां पुष्प.. 🌹🙏🏻

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