एक संत जी ने एक बिल्ली पाल रखी थी। बिल्ली इतनी समझदार थी कि रोजाना जब संत जी शाम के सत्संग में रात्रि के अन्धकार को दूर करने के लिए एक चिराग़ जलाकर उसके माथे पर रख देते थे, तब वो उस चिराग को सिर से गिरने नहीं देती थी। एकाग्रता से बैठी रहती थी।
यह दृश्य देखकर सत्संगी जनों को बड़ा आश्चर्य होता परन्तु वे कहते कुछ नहीं। एक दिन एक सत्संगी ने बिल्ली की हकीकत का पता लगाने की एक बेहतरीन युक्ति खोजी। वह सत्संगी कहीं से एक चूहा पकड़ लाया और उसे चादर में छुपाकर, चादर ओढ़कर सत्संग में गया।
प्रतिदिन की तरह ही बिल्ली के माथे पर चिराग़ रख दिया गया और सत्संग शुरू कर दिया गया ।
कुछ ही समय पश्चात उस सत्संगी ने चुपके से वह चूहा बिल्ली के सामने छोड़ दिया।जैसे ही बिल्ली ने चूहे को देखा वो सब कुछ भूलकर चूहे पर झपट पड़ी और चिराग़ को नीचे गिरा दिया, जिससे अंधेरा हो गया। शायद हम सब भी उस बिल्ली की ही तरह है। जब तक सत्संग करते हैं या ज्ञान की बातें करते हैं या कोई इच्छित वस्तु हमारे सामने नहीं होती है तब तक हम सब उस बिल्ली की तरह ही शान्त बने रहते हैं।
जैसे ही हमारे सामने कोई इच्छित पदार्थ सामने आता है या जैसे ही संसार में व्यवहार करने लग जाते हैं। तो हम अधर्म करने से भी परहेज़ नहीं करते हैं, उस समय पता नहीं सत्संग का ज्ञान कहाँ चला जाता है और हम अपने ज्ञान रूपी चिराग़ को नीचे गिरा देते हैं । जिससे अज्ञान का अंधेरा हो जाता है ।और हम पतित हो जाते हैं। किसी भी व्यक्ति को ज्ञान हो जाना बड़ी बात नहीं है। बड़ी बात तो है कि प्राप्त ज्ञान को अपने अनुभव की कसौटी पर कसकर जीवन में उतार लेना।