देवी अहिल्याबाई: जनकल्याण, सुशासन और सांस्कृतिक पुनरुत्थान की प्रणेता

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मीडिया सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार, देवी अहिल्या बाई होलकर का जीवन समाज, संस्कृति और राष्ट्र के लिए समर्पित रहा। उनका व्यक्तित्व और कृतित्व भारत की अमोल निधि है। उन्हें समाज ने पुण्य-श्लोका, लोकमाता, मातोश्री, न्यायप्रिया, प्रजावत्सला, राजमाता आदि से संबोधित किया। यह संबोधन समाज का उनके प्रति सम्मान, श्रृद्धा और आदर्श भाव को प्रकट करते है। उनकी कार्य शैली, व्यवहार, कर्म-कर्तव्य का पालन, विपरीत और विषम परिस्थिति में भी स्थिर रहना, उचित समय पर उचित निर्णय, दूरदृष्टि, संकल्प की दृढ़ता, प्रशासनिक कौशल अद्भुत था। उनके कालजयी विचार और व्यवहार हर युग में ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’ का संदेश देते हैं।

व्यक्ति निर्माण, समाज निर्माण, नारी सशक्तिकरण, प्रकृति-पर्यावरण संवर्धन और भारत के सांस्कृतिक गौरव की पुनर्प्रतिष्ठा का जो कार्य अहिल्याबाई होलकर ने किया यह उनके विराट व्यक्तित्व को अभिव्यक्त करता है। उन्होंने परिपूर्ण सुशासन व्यवस्था, स्वावलंबी आत्मनिर्भर समरस समाज, सुरक्षित समृद्ध राज्य का एक आदर्श प्रस्तुत किया। शासन का ऐसा अद्भुत संयोग बिरला ही होता है। जिस तरह पूज्य शंकराचार्य जी ने चारों दिशाओं में चार मठों की स्थापना कर सनातन संस्कृति को पुनर्स्थापित किया। ठीक उसी तरह देवी अहिल्याबाई होलकर ने पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक हमारे विखंडित मान बिंदुओं को स्थापित किया और देशभर में सांस्कृतिक गौरव की पुनप्रतिष्ठा की तथा भारत को एक सूत्र में पिरोया। उनका शासनकाल मालवा का स्वर्णकाल होने के साथ राष्ट्र के सांस्कृतिक अभ्युदय का समय रहा है।

असाधारण व्यक्तित्व की धनी देवी अहिल्याबाई का जन्म 31 मई 1725 को महाराष्ट्र के तत्कालीन अहमदनगर वर्तमान में अहिल्या नगर जिले के चौंडी गांव में हुआ था। ग्रामीण पृष्ठभूमि में साधारण परिवार में जन्मी अहिल्याबाई अपनी प्रतिभा और क्षमता से विशेष बनीं। मात्र आठ वर्ष की उम्र में वे राजवधु बनकर इंदौर आ गई। अहिल्याबाई को दोनों परिवारों से स्नेह, संबल और संस्कार मिले लेकिन उनका पूरा जीवन विषमता से भरा रहा। वे केवल 29 वर्ष की थीं तभी पति महाराज खांडेराव वीरगति को प्राप्त हो गये। 1766 में पितृवत स्नेह देने वाले मल्हार राव होलकर का निधन हुआ। इसके बाद पुत्र मालेराव का निधन और फिर दोहित्र का निधन, फिर दामाद का निधन और बेटी का सती होना। वे अपने व्यक्तिगत जीवन में जितनी शांत, सरल और भावनात्मक थीं, राजकाज और राष्ट्र संस्कृति की रक्षा में उतनी ही संकल्पनिष्ठ और दृढ़ प्रतिज्ञ। इसीलिये उनके कार्यकाल में होलकर राज्य ने चहुंमुखी उन्नति की। उन्होंने राज्य को भगवान शिव को अर्पित कर दिया और स्वयं को केवल निमित्त माना। वे कहती थीं कर्ता भी शिव, कर्म भी शिव, क्रिया भी शिव और कर्मफल भी शिव। वे राज्य के आदेश पर अपने हस्ताक्षर नहीं करती थीं। केवल राजमुद्रा लगाती थीं जिस पर श्रीशंकर अंकित था।

कुशल राजनीतिज्ञ

महाराज मल्हार राव होलकर की मृत्यु उपरांत अहिल्याबाई ने कुशल राजनीतिक सूझबूझ से राज्य को युद्ध के संकट में जाने से बचा लिया। अहिल्याबाई एक कुशल सैन्य संचालक भी थीं। वे तलवार, भाला और तीर कमान चलाने में निपुण थी। वे हाथी पर बैठकर युद्ध करती थीं।

सामाजिक समरसता

अहिल्याबाई की दृष्टि में जन्म, जाति, वर्ग या वर्ण से परे योग्यता महत्वपूर्ण थी। सामाजिक समरसता के इस सिद्धांत की झलक उनके मंत्रि-परिषद, उनके द्वारा बसायी गई बस्तियों में, सुरक्षा टोलियों के गठन और कृषि भूमि आवंटन में दिखती है। उन्होंने अपनी पुत्री का विवाह भी जन्म या जाति देखकर नहीं अपितु योग्यता देखकर किया। उन्होंने जब शासन संभाला तब राज्य में अराजकता का वातावरण था। उन्होंने घोषणा की कि जो भी नायक आंतरिक अपराधों को नियंत्रित करके शांति स्थापित करेगा उससे अपनी बेटी का विवाह करेंगी। नायक यशवंत राव फणसे ने यह काम पूरी क्षमता से किया। रानी ने सैन्य भर्ती अभियान चलाया एक आंतरिक सुरक्षा के लिये और दूसरा बाह्य युद्ध के लिये। उन्होंने घुमुन्तू समाज के सदस्यों तथा भीलों को सेना में भर्ती कर लिया तथा सीमा क्षेत्र के गांव में बसा दिया। कल तक जो दल अपराध समूह में थे वे अब गांवों की रक्षा कर रहे थे। इससे शांति व्यवस्था बनी। गाँव के वातावरण में स्थायित्व आया, कृषि उत्पादन बढ़ा।

कृषि, उद्योग और व्यापार

महारानी अहिल्याबाई होलकर ने कृषि और वनोपज आधारित कुटीर एवं हस्तकला को प्रोत्साहित किया। कृषि उन्नति के लिये गाँवों में तालाब और छोटी नहरों को विकसित किया। कपास और मसालों की खेती को प्रोत्साहित किया। उन्होंने भील वनवासियों और घुमन्तु टोलियों के सुरक्षा दस्ते बनाने के साथ खाली पड़ी जमीन पर खेती करने की योजना लागू की। इस योजना से अनाज, कपास, मसालों की खेती का विस्तार हुआ। उन्होंने विश्व प्रसिद्ध महेश्वरी साड़ी उद्योग स्थापित किया। इससे देशभर के व्यापारी आकर्षित हुए और इंदौर आने लगे। इस उद्योग में युद्ध में बलिदान सैनिकों की पत्नियों और कैदियों की पत्नियों को लगाया ताकि उनका परिवार पल सके। इससे जहां महिलाएं स्वावलंबी हुईं वहीं, उद्योग का विस्तार हुआ।

महिला सम्मान और सशक्तिकरण

लोकमाता देवी अहिल्याबाई नारी सम्मान और सुरक्षा को लेकर अति संवेदनशील थीं। उन्होंने गांव में नारी सुरक्षा टोलियां स्थापित कीं। महिलाओं की एक सैन्य टुकड़ी भी गठित की। महिलाओं के सामाजिक सम्मान और आत्मनिर्भरता के लिये कुछ क्रांतिकारी निर्णय लिये। महिलाओं को संपत्ति में अधिकार, विधवा को दत्तक पुत्र लेने का अधिकार तथा विधवा पुनर्विवाह के अधिकार प्रदान किये।

पर्यावरण संरक्षण

देवी अहिल्याबाई ने महेश्वर में किले के निर्माण के लिये पर्वत को नहीं तोड़ने दिया बल्कि नर्मदा किनारे मैदान में पड़े पत्थरों का उपयोग किया। महेश्वर किले के निर्माण में जितने पेड़ हटे, उतने पेड़ लगाये गये, नर्मदा क्षेत्र में नींबू, कटहल, आम, बरगद आदि वृक्ष लगाये, इससे भूमि का जल स्तर बढ़ा और वनोपज से किसानों की आय ने भी वृद्धि हुई।

सांस्कृतिक गौरव की पुनर्प्रतिष्ठा

अहिल्याबाई ने अपने राज्य के साथ देश के सांस्कृतिक गौरव की पुनर्प्रतिष्ठा की। उन्होंने तीर्थ स्थलों को पुनर्प्रतिष्ठित करने का अभियान छेड़ा। उन्होंने भारत के लगभग एक सौ तीस विभिन्न तीर्थ स्थलों और पवित्र नदियों के घाटों पर निर्माण कार्य करवाया। कुछ मंदिरों में शिक्षा केन्द्र, व्यायाम शालाएं तथा अन्नक्षेत्र आरंभ किये। तीस मंदिरों में संत निवास, प्रवचन कक्ष और प्रांगण बनवाये। यह निर्माण कार्य इतनी गुणवत्ता पूर्ण थे कि लगभग ढाई सौ वर्ष बीत जाने के बाद भी यथावत हैं। गुजरात का सोमनाथ मंदिर, सभी ज्योतिर्लिंग, बद्रीनाथ धाम, दक्षिण में रामेश्वरम, जगन्नाथपुरी, द्वारिका, मथुरा श्रीकृष्ण मंदिर, वाराणसी में विश्वनाथ विष्णु धाम मंदिर और मणिकर्णिका घाट आदि का निर्माण कराया।

होलकर राज्य सुराज, स्वराज, सुशासन, सुव्यवस्था, संपन्नता, विकास और निर्माण का पर्याय बन गया। मातोश्री ने महेश्वर को शिल्प कला, संस्कृति, शिक्षा, साहित्य, उद्योग और व्यापार का केन्द्र बनाकर समूचे देश में शाखाएं स्थापित की। टकसाल स्थापित कर पूंजी उपलब्ध करवायी। होलकर राज्‍य में समर्थ सूचना तंत्र, पंचायतीय राज, न्‍यायालय, सुरक्षा की चौकस व्‍यवस्‍था, सशक्‍त सेना के साथ ग्रामीण तथा नगरीय नियोजन का अनूठा उदाहरण प्रस्‍तुत किया। कभी राजनीतिक सूझबूझ तो कभी पराक्रम से राज्य को संघर्ष से बचाया और मजबूती प्रदान की। देवी अहिल्याबाई ने कभी विश्राम नहीं किया। जीवन के अंतिम क्षण तक वे भगवान शिव और समाज के प्रति समर्पित रहीं। अंततः राजयोगिनी, कर्मयोगिनी देवी अहिल्याबाई ने 13 अगस्त 1795 को अपने जीवन की अंतिम श्वास ली। अंतिम क्षण तक उनके हाथ में शिव स्मरण की माला ही थी।

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News  Source: mpinfo.org

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