DailyAawaz Exclusive Story: प्रभु श्रीराम के बाल्यकाल का एक प्रेरक प्रसंग हम यहाँ बताने जा रहे है-
कैकेयी जी वर्षों पुराने स्मृति कोष में चली गईं, उन्हें वह दिन याद आ गया जब वे राम और भरत को बाण संधान की प्रारम्भिक शिक्षा दे रहीं थीं।
जब उन्होंने भरत से घने वृक्ष की डाल पर चुपचाप बैठे हुए एक कपोत पर लक्ष्य साधने के लिए कहा तो भरत ने भावुक होते हुए अपना धनुष नीचे रख दिया था और कैकेयी से कहा था- माँ किसी का जीवन लेने पर यदि मेरी दक्षता निर्भर है तो मुझे दक्ष नहीं होना। मैं इस निर्दोष पक्षी को अपना लक्ष्य नहीं बना सकता, उसने क्या बिगाड़ा है जो उसे मेरे लक्ष्य की प्रवीणता के लिए उसे अपने प्राण गँवाने पड़ें?
कैकेयी बालक भरत के हृदय में चल रहे भावों को बहुत अच्छे से समझ रहीं थीं, ये बालक बिल्कुल ‘यथा गुण तथा नाम ही है।’ भावों से भरा हुआ, जिसके हृदय में प्रेम सदैव विद्यमान रहता है।
तब कैकेयी ने राम से कहा- पुत्र राम उस कपोत पर अपना लक्ष्य साधो। राम ने क्षण भी नहीं लगाया और उस कपोत को भेदकर रख दिया था।
राम के सधे हुए निशाने से प्रसन्न कैकेयी ने राम से पूछा था- पुत्र, तुमने उचित-अनुचित का विचार नहीं किया ? तुम्हें उस पक्षी पर तनिक भी दया ना आयी ?
राम ने भोलेपन से कहा था- माँ, मेरे लिए जीवन से अधिक महत्वपूर्ण मेरी माँ की आज्ञा है। उचित-अनुचित का विचार करना ये माँ का काम है। माँ का संकल्प, उसकी इच्छा, उसके आदेश को पूरा करना ही मेरा लक्ष्य है। तुम मुझे सिखा भी रही हो और दिखा भी रही हो, तुम हमारी माँ ही नहीं गुरु भी हो, यह किसी भी पुत्र का, शिष्य का कर्तव्य होता है कि वह अपने गुरु अपनी माँ के दिखाए और सिखाए गए मार्ग पर निर्विकार-निर्भिकता के साथ बढ़े, अन्यथा गुरु का सिखाना और दिखाना सब व्यर्थ हो जाएगा।
कैकेयी ने आह्लादित होते हुए राम को अपने अंक में भर लिया था, और दोनों बच्चों को लेकर राम के द्वारा गिराए गए कपोत के पास पहुँच गईं।
भरत आश्चर्य से उस पक्षी को देख रहे थे, जिसे राम ने अपने पहले ही प्रयास में मार गिराया था। पक्षी के वक्ष में बाण घुसा होने के बाद भी उन्हें रक्त की एक भी बूँद दिखाई नहीं दे रही थी!
भरत ने उस पक्षी को हाथ में लेते हुए कहा- माँ ये क्या ? ये तो खिलौना है ? तुमने कितना सुंदर प्रतिरूप बनाया इस पक्षी का! मुझे ये सच का जीवित पक्षी प्रतीत हुआ था। तभी मैं इसके प्रति दया के भाव से भर गया था, माया के वशीभूत होकर मैंने आपकी आज्ञा का उल्लंघन किया इसके लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूँ।
तब कैकेयी ने बहुत ममता से कहा था- पुत्रो मैं तुम्हारी माँ हूँ.. मैं तुम्हें बाण का संधान सिखाना चाहती हूँ, वध का विधान नहीं क्योंकि लक्ष्य भेद में प्रवीण होते ही व्यक्ति स्वयं जान जाता है कि किसका वध करना आवश्यक है और कौन अवध है।
किंतु स्मरण रखो जो दिखाई देता है आवश्यक नहीं वह वास्तविकता हो, और ये भी आवश्यक नहीं की जो वास्तविकता हो वह तुम्हें दिखाई दे। कुछ जीवन, संसार की मृत्यु के कारण होते हैं, तो कुछ मृत्यु संसार के लिए जीवनदायी होती हैं।
तब भरत ने बहुत नेह से पूछा था- माँ तुम्हारे इस कथन का अर्थ समझ नहीं आया, हमें कैसे पता चलेगा कि इस जीवन के पीछे मृत्यु है या इस मृत्यु में जीवन छिपा हुआ है ?
वृक्ष के नीचे शिला पर बैठी हुई कैकेयी ने एक अन्वेषक दृष्टि राम और भरत पर डाली, उन्होंने देखा की दोनों बच्चे धरती पर बैठे हुए बहुत धैर्य से उसके उत्तर की प्रतीक्षा कर रहे हैं। धैर्य विश्वासी चित्त का प्रमाण होता है और अधीरता अविश्वासी चित्त की चेतना। कैकेयी को आनंद मिला कि उसके बच्चे विश्वासी चित्त वाले हैं।
उन्होंने बताया था- असार में से सार को ढूँढना और सार में से असार को अलग कर देना ही संसार है। असार में सार देखना प्रेम दृष्टि है तो सार में से असार को अलग करना ज्ञान दृष्टि।
पुत्र भरत, तुम्हारा चित्त प्रेमी का चित्त है क्योंकि तुम्हें मृणमय भी चिन्मय दिखाई देता है और पुत्र राम तुम्हारा चित्त ज्ञानी का चित्त है क्योंकि तुम चिन्मय में छिपे मृणमय को स्पष्ट देख लेते हो।
राम ने उत्सुकता से पूछा- माँ प्रेम और ज्ञान में क्या अंतर होता है ?
वही अंतर होता है पुत्र, जो कली और पुष्प में होता है। अविकसित ज्ञान, प्रेम कहलाता है और पूर्ण विकसित प्रेम, ज्ञान कहलाता है।
हर सदगृहस्थ अपने जीवन में ज्ञान, वैराग्य, भक्ति और शक्ति चाहता है क्योंकि संतान माता-पिता की प्रवृति और निवृत्ति का आधार होते हैं। इसलिए वे अपनी संतानों के नाम उनमें व्याप्त गुणों के आधार पर रखते हैं। तुम्हारी तीनों माताओं और महाराज दशरथ को इस बात की प्रसन्नता है कि हमारे सभी पुत्र यथा नाम तथा गुण हैं।
भरत, राम तुम सभी भाइयों में श्रेष्ठ है, ज्ञान स्वरूप है क्योंकि उसमें शक्ति, भक्ति, वैराग्य सभी के सुसंचालन की क्षमता है, इसलिए तुम सभी सदैव राम के मार्ग पर, उसके अनुसार उसे धारण करते हुए चलना। क्योंकि वह ज्ञान ही होता है जो हमारी प्रवृत्तियों का सदुपयोग करते हुए हमारी निवृत्ति का हेतु होता है।
|| जय जय सियाराम ||
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