एक बार मैं दिल्ली में बीमार था। पहले श्रीज्वालाप्रसादजी के पास था, फिर भाई रामकृष्ण डालमिया मुझे ले गये। बोले- अब आप कुछ अच्छे हो गये, मेरे पास चलिये। मैं उनकी कोठी में ठहरा हुआ था। मैं नाम तो नहीं बताऊँगा, एक सज्जन मेरे पास वहाँ मिलने आये जो पहले बड़े अच्छे घराने के थे। उस समय उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी, बहुत खराब थी।
उन्होंने अपनी लड़की के जेवर कहीं बन्धक रख दिये थे। उस लड़की को लेने ससुराल वाले आ गये थे। उनको जेवर बन्धक से छुड़ाकर लड़की को देना था, रुपये उनके पास थे नहीं। वे आये थे रामकृष्ण के पास। रामकृष्ण के पास उस समय रुपये थे नहीं या उसकी इच्छा नहीं थी- उन्हें कह दिया हम नहीं कर सकेंगे।
मैं जिस कमरे में था, वे आकर मेरे पास बैठ गये। उन्होंने अपनी सारी कथा मुझे सुनाई। मेरे पास कोई व्यवस्था थी नहीं। मैं उन्हें नहीं ही कहने वाला था। उनकी आँखों से आँसू बहने लगे। इतने में ही एक महिला ने मेरे कमरे में प्रवेश किया। वे अब मर गई हैं इसलिये नाम बताने में आपत्ति नहीं है। कलकत्ते में एक फर्म था ‘नौरंगराय नागरमल’। नागरमलजी मेरे पिताजी के मामा के लड़के के लड़के थे- मेरे बड़े भाई लगते थे तो वे मेरी भाभी थीं।
वे कलकत्ते से रतनगढ़ जा रही थी, सबेरे स्टेशन पर किसी ने उन्हें कहा कि भाईजी यहीं है, बीमार हैं। उसने सोचा, चलो उनसे मिल आवें। वह बेचारी ढूँढ़ते-ढूँढ़ते रामकृष्ण के घर पहुँची। जब उन्होंने मेरे कमरे मे प्रवेश किया तो सज्जन बैठे हुए थे। उन्होंने देखा कोई महिला आ रही है तो वे बाहर निकल गये। उन्होंने आँसू देख लिये। वह मेरे पास आकर बैठ गई।
उन्होंने सबसे पहले मुझसे पूछा- ये कौन हैं ? मैने उनका नाम बता दिया। बोलीं- ये रो क्यों रहे थे ? मैने सारी बातें बता दी। वह बोली- कितने रुपये थे ? मैने जितने रुपये थे, बता दिये।
आप सुनकर आश्चर्य करेगें, उन्होंने अपने पास से ठीक उतने ही नोट निकाले, जितने की उनको आवश्यकता थी। वह बोली- उनको दे दीजिये। मैने कहा- ये तुम क्यों देती हो ?
वह बोली- जब मैं कलकत्ते से रवाना हुई तो मेर पास पेटी में इतने ही रुपये इकट्ठे थे। मैने सोचा कि किसी अच्छे काम में लगा देंगे। आपके सामने बात चली, यह अच्छा काम तो है ही, आप इन्हें अच्छा बताते ही हैं, इसमें लगा देना बड़ा अच्छा।
अब मेरे मन में आया कि इनको किसने भेजा। वे तो मेरे पास अभी आये और इसकी तैयारी दो दिन पहले से हुई। दो दिन पहले से ठीक उतने ही रुपयों की व्यवस्था करके भेजने वाला कौन है ?
यदि वह एक घंटा बाद आतीं तो इनसे बात चलती ही नहीं। अथवा पहले आकर चली जाती तो कोई बात ही नहीं थी। ठीक उसी समय आईं और उनके आँसू देख लिये। यह भगवान् का मंगलमय विधान है।
हमें यह सोचना चाहिये कि भगवान् का मंगल विधान है। प्रारब्ध के अनुसार जो अच्छा या बुरा फल होना है, वह होगा ही। पाप करने से, चिंता करने से न वह बदलेगा, न कोई लाभ होगा।
– श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार
सन्दर्भ: पुस्तक- भाईजी-चरितामृत
(गीतावाटिका प्रकाशन)
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