श्रीरामचरितमानस परमानंद रूपी रत्नों से भरी पड़ी है: एक हृदयस्पर्शी प्रसंग

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गोस्वामी तुलसीदास जी की ‘श्रीराम चरित मानस’ में धर्म, अध्यात्म, भक्ति का अथाह सागर हिलोरें लेता है। इसमें डुबकी लगाने वाला प्रेम रूपी मोतियों की दौलत से मालामाल हो जाता है। काव्य विधा की गरिमा को कुशलता के साथ अपने में समेटे ‘मानस’ परमानंद रूपी रत्नों से भरी पड़ी है। कविता के नौ रसों में श्रृंगार को रसराज कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी। ‘मानस’ में इसका एक अनुपम उदाहरण देखिए।

श्रीराम वनवास के लिए पैदल जा रहे हैं। साथ में माता जानकी एवं भाई लक्ष्मण हैं। वे न केवल वहाँ के राजकुमार हैं अपितु अत्यंत रूपवान और आकर्षक व्यक्तित्व के धनी भी हैं। उनकी अलौकिक मनमोहक छवि को निहारने के लिए रास्ते में पड़ने वाले गाँवों के स्त्री-पुरुष, बाल-वृद्ध सभी एकत्र हो जाते हैं। वे श्रीराम, सीता जी और लखनलाल की सौंदर्य-माधुर्य की छटा देखकर ऐसे थकित रह गए जैसे दीपक को देखकर हिरणी और हिरण निस्तब्ध रह जाते हैं। चलते-चलते जब सीता जी थक जाती हैं तो गांव के बाहर वे बरगद के वृक्ष के नीचे सुस्ताने लगते हैं। ग्रामवासी यथाशक्ति उनकी सेवा एवं सत्कार करते हैं। उस सुअवसर का लाभ उठाने के लिए ग्रामीण महिलाएँ सीता जी के पास आकर बातचीत करने लगती हैं।

सभी ग्राम नारियाँ निश्छल प्रेम के भाव में डूबी हुई हैं। उनके मन में यह जानने की स्वाभाविक उत्सुकता है कि सीता जी के साथ के दोनों युवक उनके कौन हैं? अपने परिवेश एवं हैसियत के कारण वे हिचकिचा रही हैं। अंत में वे जानकी जी से पूछ ही लेती हैं। गोस्वामी जी ने इस अद्भुत वार्तालाप को भक्ति, प्रेम और मनोविज्ञान के गूढ़ रहस्य की गहराइयों में डूबकर लिखा है। मेरा विश्वास है, श्रृंगार रस अपना मान बढ़ाने के लिए तुलसी बाबा की लेखनी से अनुनय विनय कर इस प्रसंग में स्वतः शामिल हो गया होगा। गाँव की स्त्रियों की जिज्ञासा एवं जानकी जी द्वारा किए गए समाधान का भरपूर आनंद लेने के लिए गुसाईं जी के एक-एक शब्द पर ध्यान दीजिए।

गाँव की स्त्रियाँ सीता जी के पास जाकर बार-बार पैर लगती हैं और सीधे-सादे कोमल वचन कहती हैं- हे राजकुमारी! हम कुछ निवेदन करना चाहती हैं परंतु स्त्री-स्वभाव के कारण पूछते हुए डरती हैं। हे स्वामिनि! हमारी ढिठाई क्षमा करिएगा और हमें गँवारी जानकर बुरा न मानिएगा। ये दोनों राजकुमार स्वभाव से ही लावण्यमय हैं। मरकतमणि और सुवर्ण ने कांति इन्हीं से पायी है। श्याम और गौर वर्ण है, सुंदर किशोर अवस्था है, दोनों ही परम सुंदर और शोभा के धाम हैं। शरत्पूर्णिमा के चंद्रमा के समान इनके मुख और शरद-ऋतु के कमल के समान इनके नेत्र हैं। हे सुमुखि! कहो तो अपनी सुंदरता से करोड़ों कामदेवों को लजानेवाले ये तुम्हारे कौन हैं?
(राजकुमारि बिनय हम करहीं, तिय सुभायँ कछु पूँछत डरहीं।
स्वामिनि अबिनय छमबि हमारी, बिलगु न मानब जानि गवाँरी।
राजकुअँर दोउ सहज सलोने, इन्ह तें लही दुति मरकत सोने।
स्यामल गौर किसोर बर सुंदर सुषमा ऐन,
सरद सर्बरीनाथ मुखु सरद सरोरुह नैन ।
कोटि मनोज लजावनिहारे, सुमुखि कहहु को आहिं तुम्हारे।)

उनकी ऐसी प्रेममयी सुंदर वाणी सुनकर सीता जी सकुचा गईं और मन ही मन मुस्कुराईं। उत्तम वर्ण वाली सीता जी उनको देखकर पृथ्वी की ओर देखती हैं। वे दोनों ओर के संकोच से सकुचा रही हैं। टीकाकार दोनों ओर के संकोच को समझाते हैं कि न बताने में गाँव की नारियों को दुख होने का संकोच है और बताने में लज्जारूप संकोच। हिरण के बच्चे जैसे नेत्र और कोकिल की सी वाणी वाली सीता जी सकुचाकर प्रेमसहित मधुर वचन बोलीं- ये जो सहजस्वभाव, सुंदर और गोरे शरीर के हैं, उनका नाम लक्ष्मण है; ये मेरे छोटे देवर हैं। फिर सीता जी ने लाजवश अपने चंद्रमुख को आँचल से ढककर और प्रियतम श्रीराम जी की ओर निहारकर भौहें टेढ़ी करके खंजन पक्षी के से सुंदर नेत्रों को तिरछा करके इशारे से उन्हें कहा कि ये श्रीरामचंद्र जी मेरे पति हैं।
(सहज सुभाय सुभग तन गोरे, नामु लखनु लघु देवर मोरे।
बहुरि बदनु बिधु अंचल ढाँकी, पिय तन चितइ भौंह करि बाँकी।
खंजन मंजु तिरीछे नयननि, निज पति कहेउ तिन्हहि सियँ सयननि।)

यह जानकर गाँव की युवती स्त्रियाँ इस प्रकार आनंदित हुईं मानो कंगालों ने धन की राशियाँ लूट लीं। उन्होंने सीता जी के पैर पकड़कर आशीष वचन बोलते हुए अपने ऊपर कृपा बनाए रखने का निवेदन किया। जानकी जी ने सभी को प्रिय वचन बोलकर भलीभाँति संतुष्ट किया।
-रमेश रंजन त्रिपाठी

 

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