चैत्र नवरात्र: सिद्धि अर्थात मोक्ष को देने वाली होने से वह सिद्धिदात्री कहलाती है- Team DA Exclusive

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म.प्र.(भोपाल): भगवान के अवतार एक निश्चित समय पर निश्चित उद्देश्य की पूर्ति के लिए हुआ करते हैं। वे प्रत्येक युग में अवतार लेते हैं पर शक्ति के अवतरण में ऐसी कोई सीमा नहीं हैं। जब-जब और जहां भी दानवों का प्राबल्‍य होने पर बाधा हो, वह तभी उसी समय अवतरित होकर शत्रु नाश की प्रतिज्ञा करती हैं, वे भक्त को आश्वासन देती है कि मैं तुम्हारे साथ हूँ, तुम जब भी पुकारोगे मैं अवतरित हो जाऊंगी। वराह पुराण के 90 अध्याय में एक ऐसा भी संकेत आया है। देवी, देवताओं से कहती है कि-

किं मां न वेत्‍थ सुश्रोणीं स्‍वरशक्तिं परमेश्‍वरीम्।
“क्‍या तुम मुझे नहीं जानते, मैं तुम्‍हारी ही परमेश्‍वरी शक्ति हूँ।’’

क्या आज भी वह जगदम्‍बा परमेश्वरी, हमारे अंतःकरण में समाहित शक्ति हमसे यही प्रश्न नहीं कर रही है कि क्या तुम मुझे नहीं पहचानते, मैं तुम्हारी शक्ति हूँ। इसी को श्री दुर्गासप्तशती में शरीर कोशों से उत्पन्न होने के कारण कौशिकी कहा गया है। श्री दुर्गासप्तशती की कथा तीन भागों में विभाजित है जिन्हें प्रथम चरित्र, मध्‍यम चरित्र और उत्तर चरित्र कहा जाता है। प्रथम चरित्र में तामसी वृत्ति से प्रारंभ होकर मध्यम चरित्र में रजोगुण के आगे यहां अहंकार और अस्मिता के शेष रह जाने पर सत्य का भी लय होकर त्रिगुणातीत अवस्था तक पहुंचने के लिए संघर्ष है जबकि उत्तर चरित्र स्‍थूल और सूक्ष्म से आगे साधना के अगले स्‍तर- देवी के पर रूप का वर्णन है। समष्टि रूप में जो विश्वशक्ति है, वही व्यष्टि में अन्‍तश्‍चेतना है। प्रथम चरित्र में देवी नेत्र, मुख, नासिक, बाहु, हृदय और वक्ष से निकलकर प्रकट होती है। मध्यम चरित्र में समस्‍त देवताओं का अन्‍तस्‍तेज एक होकर शक्ति रूप में युद्धरत है एवं उत्तर चरित्र में प्रत्येक शक्ति स्वयं क्रियाशील होकर युद्धक्षेत्र में अग्रसर है। जिस देवता के जो रूप, जो आभूषण और वाहन थे उसी रूप में उसकी शक्ति युद्ध करने के लिए आयी है। साधना के क्रम में प्रथम चरित्र का ब्रह्माग्रन्थि- भेदन से संबंध है, मध्यम चरित्र का विष्णुग्रन्‍थी- भेदन से और उत्तर चरित्र में रुद्रग्रन्‍थी का भेदन बताया गया है। श्री दुर्गासप्तशती का कथानक-‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ के अनुसार तमस् से शक्ति का अन्वेषण करते हुए, उसकी स्तुति करते हुए, मनोविकारों के शमन के लिए, प्राण की चंचलता के शमन के लिए, चित्त की एकाग्रता और स्थिरता के लिए आसुरी वृत्तियों से संघर्ष करते हुए देवशक्ति का आव्‍हान कर अपनी सुप्‍त शक्तियों को जगाकर आत्म कल्याण से आगे लोककल्याण के लिए समर्पित होने का यह रूपक है।

नवीं भगवती दुर्गा सिद्धिदात्री

सिद्धि अर्थात् मोक्ष को देने वाली होने से उनका नाम सिद्धिदात्री है।

स्‍मरण मंत्र

सिद्धगन्धर्वयक्षाद्यैरसुरैरमरैरपि।
सेव्यमाना सदा भूयात् सिद्धिदा सिद्धिदायनी।।

मां दुर्गा के नवें स्वरूप का नाम सिद्धिदात्री है। यह अपने भक्तों को आठों सिद्धि प्रदान करने में समर्थ हैं। देवीपुराण के अनुसार भगवान शिव ने भी इन्हीं की कृपा से सिद्धियों को प्राप्त किया था। इनकी चार भुजाऐं हैं। इनकी दायीं ओर की दो भुजाओं में गदा और चक्र तथा बायीं ओर की दो भुजाओं में पद्म और शंख सुशोभित हैं। ये अपने सिर पर स्वर्णमुकुट और गले में श्वेत पुष्पों की माला धारण करती हैं। कमल पर आसीन इन देवी की सिद्ध, गन्‍धर्व, यक्ष, देवता और असुर सभी आराधना करते हैं। नवरात्र के नवें दिन इनकी पूजा की जाती है। इनकी उपासना करने वाले साधक के लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं रहता अर्थात् उसके अंदर सब कुछ करने की सहज शक्ति प्राप्त हो जाती है।

माँ जगदंबा के चरण कमलों में समर्पित लेख का नवां पुष्प.. जय जय मां 🌹🌹🙏🏻🙏🏻

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