जैसे प्राणियोंकी वृत्तियोंका पदार्थोंपर असर पड़ता है, ऐसे ही प्राणियोंकी दृष्टिका भी असर पड़ता है । बुरे व्यक्तिकी अथवा भूखे कुत्तेकी दृष्टि भोजनपर पड़ जाती है तो वह भोजन अपवित्र हो जाता है । अब वह भोजन पवित्र कैसे हो ? भोजनपर उसकी दृष्टि पड़ जाय तो उसे देखकर मनमें प्रसन्न हो जाना चाहिये कि भगवान् पधारे हैं ! अतः उसको सबसे पहले थोड़ा अन्न देकर भोजन करा दे । उसके देनेके बाद बचे हुए शुद्ध अन्नको स्वयं ग्रहण करे तो दृष्टिदोष मिट जानेसे वह अन्न पवित्र हो जाता है । दूसरी बात, लोग बछड़ेको पेटभर दूध न पिलाकर सारा दूध स्वयं दुह लेते हैं । वह दूध पवित्र नहीं होता; क्योंकि उसमें बछड़ेका हक आ जाता है । बछड़ेको पेटभर दूध पिला दे और इसके बाद जो दूध निकले, वह चाहे पावभर ही क्यों न हो, बहुत पवित्र होता है ।
भोजन करनेवाले और करानेवालेके भावका भी भोजनपर असर पड़ता है; जैसे‒(१) भोजन करनेवालेकी अपेक्षा भोजन करानेवालेकी जितनी अधिक प्रसन्नता होगी,वह भोजन उतने ही उत्तम दर्जेका माना जायगा । (२) भोजन करानेवाला तो बड़ी प्रसन्नतासे भोजन कराता है; परन्तु भोजन करनेवाला ‘मुफ्तमें भोजन मिल गया; अपने इतने पैसे बच गये; इससे मेरेमें बल आ जायगा’ आदि स्वार्थका भाव रख लेता है तो वह भोजन मध्यम दर्जेका हो जाता है और (३) भोजन करानेवालेका यह भाव है कि ‘यह घरपर आ गया तो खर्चा करना पड़ेगा, भोजन बनाना पड़ेगा, भोजन कराना ही पड़ेगा’ आदि और भोजन करनेवालेमें भी स्वार्थभाव है तो वह भोजन निकृष्ट दर्जेका हो जायगा ।
इस विषयमें गीताने सिद्धान्तरूपसे कह दिया है‒‘सर्वभूतहिते रताः’ (५ । २५, १२ । ४) । तात्पर्य यह है किजिसका सम्पूर्ण प्राणियोंमें हितका भाव जितना अधिक होगा, उसके पदार्थ, क्रियाएँ आदि उतनी ही पवित्र हो जायँगी ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒‘आहार-शुद्धि’ पुस्तकसे