गोस्वामी तुलसीदासजी द्वारा रचित श्रीहनुमान चालीसा की यह पचीसवीं चौपाई है-
नासै रोग हरै सब पीरा। जपत निरन्तर हनुमत बीरा।।
इस महान चौपाई को लेकर आचार्य ब्रजपाल शुक्ल (वृंदावनधाम) ने विस्तृत अर्थ को सरल शब्दों में समझाने का प्रयास किया है। तो आइए हम श्रृद्धा भाव से श्रीहनुमान चालीसा की इस चौपाई को समझने का अवसर संजोयें..
हनुमत्तोषिणी:
हे सर्वरोगनिदानकर्ता! जो स्त्री पुरुष, निरन्तर ही हनुमान बीर का नाम जप करते हैं, उनके सभी प्रकार के रोगों का नाश हो जाता है। शारीरिक मानसिक पीड़ा का हरण हो जाता है।
भावार्थ:
हे त्रिविधतापहारक! इस सृष्टि में जो भी शरीरधारी जीव है, उसे प्राकृतिक आपदाएं तो आतीं ही रहतीं हैं। कभी ऋतुपरिवर्तन के कारण रोग होते हैं, तो कभी अधिक और विकृत भोजन करने के कारण रोग होते हैं।
कभी कभी तो पूर्वजन्म के किए गए पाप ही रोगों के रूप में भोगने पड़ते हैं।
इस चतुर्विधा सृष्टि में एकमात्र मनुष्य योनि ही ऐसी है, जो रोगों के विषय में जान सकते हैं और उनकी औषधि भी जानते हैं। रोगनिदान और औषधि विज्ञान का ज्ञाता विज्ञाता मनुष्य भी शारीरिक रोगों से ग्रस्त हो जाता है तो, वह कोई भी क्रिया करने में असमर्थ हो जाता है।
कुछ रोग तो इतने प्राणघातक होते हैं कि औषधि ग्रहण करने का अवसर भी नहीं प्राप्त होता है। कुछ रोग तो नित्य निरन्तर ही यावज्जीवन बने ही रहते हैं। जबतक औषधि लेते रहेंगे,तब तक वे शान्त रहते हैं। औषधि न प्राप्त होने पर बढ़ते बढ़ते इस शरीर का ही अंत कर देते हैं। रोग होने पर शारीरिक पीड़ा भी बहुत होती है।
साध्य रोग हो,या असाध्य रोग हो,जबतक रोग रहेगा,तबतक शारीरिक मानसिक किसी भी प्रकार का सुख प्राप्त नहीं कर सकते हैं।
रोग कैसा भी हो, कितना भी हो, शरीर को ही नष्ट करता है। विशाल, बलशाली शरीर को भी एकक्षण में शक्तिहीन करनेवाले रोगों की गणना करना अतिदुष्कर कार्य है।
हे हनुमान! शारीरिक रोगों की तो औषधि से चिकित्सा हो जाती है। शरीर में होनेवाले रोगों को व्याधि कहते हैं। वैद्यों को भी ज्ञात हो जाता है। रोगों के लक्षणज्ञ व्यक्ति, इन रोगों का नाश भी करके स्वस्थावस्था में पुनः ले आते हैं।
किन्तु मानसिक रोगग्रस्त स्त्री पुरुषों की पीड़ा को वैद्य भी नष्ट नहीं कर सकते हैं।
हे विज्ञाननिधान! हनुमान! राग, द्वेष, ईर्ष्या, क्रोध,लोभ,मोह, ममता,अविवेक आदि ये रोग तो जन्म से मरण पर्यंत बने ही रहते हैं।
शारीरिक स्वस्थता होने पर भी मानसिक आधियों से भी पीड़ा बनी रहती है।
एक स्त्री पुरुष को अपने पति, पत्नी,पुत्र पुत्री धन सम्पत्ति आदि सभी सुख के साधनों की प्राप्ति होने के पश्चात भी उसके हृदय में शान्ति नहीं होती है। किसी के प्रति ईर्ष्या, द्वेष रहता है तो उसका अहंकार ही उसको असहज करके मानसिक पीड़ा देता रहता है। भले ही शरीर में जर्जरावस्था वृद्धावस्था आ जाए किन्तु तृष्णा का स्रोत तो निरन्तर ही प्रबल प्रवाह से प्रवाहित होता रहता है। जीने की इच्छा अर्थात जिजीविषा ही समाप्त नहीं होती है।
कहीं न कहीं, कुछ न कुछ अभाव बना ही रहता है। इसी अभाव को रोग कहते हैं। यह रोग तो सन्तोष की औषधि से ही नष्ट होता है।
हे भवरोगापहर्ता! आप तो मानसिक रोगों के तथा शारीरिक रोगों के परमनिपुण वैद्य हैं। यदि कोई स्त्री पुरुष, हनुमते नमः,वीराय नमः आदि आपके नामों का निरन्तर ही स्मरणपूर्वक जप करते रहें तो राग द्वेष आदि मानसिक आधियों का तथा शारीरिक व्याधियों का नाश हो जाता है।
आपके अनुकूल होने पर मन बुद्धि में,ज्ञान, वैराग्य तथा भक्ति का संचार होने लगेगा तो भगवत्कृपा भी हो जाएगी। भगवत्कृपा होने पर काम, क्रोध,लोभ, मोह आदि का क्रमिक नाश होने लगेगा।
संसार में जिन जिन वस्तुओं की, व्यक्तियों की तृष्णा है,वह शान्त होने लगेगी। तृष्णा के शान्त होते ही आत्मसंतोष जागृत हो जाएगा। आत्मसन्तोष जागृत होते ही किसी भी वस्तु या व्यक्ति के प्राप्ति की कामना नष्ट हो जाएगी। प्राप्ति की कामना के नाश होते ही मन शान्त हो जाएगा। शान्त मन में इस जगत का यथार्थ स्वरूप तथा जगदीश का यथार्थ स्वरूप प्रगट हो जाएगा।
यदि कोई स्त्री पुरुष, अपने शारीरिक रोगों का नाश करने के लिए,तथा विविध प्रकार की पीड़ाओं का नाश करने के लिए आपके हनुमते नमः वीराय नमः आदि नामों का निरन्तर उच्चारण करेंगे तो रोगों का तथा पीड़ाओं का तो नाश होगा ही, साथ साथ भगवद्भक्ति भी प्राप्त हो जाएगी।
हे भवभयहन्ता! आप तो मुझ तुलसीदास के शारीरिक रोगों का नाश करके, मानसिक रोगों का भी नाश करिए। जिससे कि स्वस्थ तन से तथा स्वस्थ मन से मैं अपने प्रभु श्रीराम जी का निरन्तर ही गुणगान करता रहूं।
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